उत्तर प्रदेश में ग़ाज़ियाबाद पुलिस ने ज़िला अदालत के 69 कर्मचारियों और अन्य लोगों को सरकारी धन के ग़बन, धोखाधडी और भ्रष्टाचार के आरोप मे गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया है, लेकिन पुलिस उन 36 जजों के ख़िलाफ़ जाँच-पड़ताल करने से घबरा रही है , जिन्होंने कथित रूप से इस धन का फ़ायदा उठाया। इस मामले को न्यायिक अधिकारियों द्वारा वित्तीय धाँधली के बड़े मामलों में से एक माना जा रहा है।
इस मामले में जिन जजों का नाम लिया जा रहा है उनमें इलाहाबाद हाई कोर्ट और उत्तराँचल हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज शामिल हैं।
इनमें एक जज सुप्रीम कोर्ट का, दो उच्च न्यायालयों के 11 जज जिनमें कुछ सेवा में हैं और कुछ रिटायर हो चुके हैं और ज़िला जज और अतिरिक्त ज़िला जज के स्तर के 24 अन्य जज के नाम शामिल बताए गए हैं।
भारत की न्यायपालिका के इतिहास में भ्रष्टाचार और धोखाधडी का यह सबसे बड़ा मामला बताया जा रहा है।
ग़ाजियाबाद के पुलिस अधीक्षक दीपक रतन ने टेलीफ़ोन पर बीबीसी को बताया की इस मामले में ग़ाज़ियाबाद ज़िला अदालत के सतर्कता अधिकारी ने फरवरी 2008 में रपट दर्ज कराई थी और इस मामले में अभी तक 83 लोग अभियुक्त बनाए गए हैं।
पुलिस ने बताया कि इनमें से 69 कर्मचारियों को गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया है और उनके ख़िलाफ़ आरोप पत्र दाख़िल कर दिए गए हैं । चार लोगों के ख़िलाफ़ कुर्की की कार्रवाही कीगयी ।
दीपक रतन ने कहा, "उत्तर प्रदेश पुलिस उच्चतम न्यायालय के एक व उच्च न्यायालय के 11 पूर्व व वर्तमान न्यायाधीशों से पूछताछ करने के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश की अनुमति का इंतज़ार कर रही है।"
उन्होंने बताया कि इस मामले में जाँच-पड़ताल में अब तक छह करोड़ रुपए के ग़बन का पता चला है।
सुनियोजित भ्रष्टाचार
दरअसल यह मामला एक लंबे अरसे तक सुनियोजित रूप से हो रहे भ्रष्टाचार का है।
इसमें करीब 80 से ज़्यादा वर्ग- 3 और वर्ग-4 के कर्मचारियों तथा कई फर्ज़ी कर्मचारियों के नाम से जीपीएफ़ खाते से पैसा निकाला गया।
दर्ज मामले में कहा गया है कि कर्मचारी भविष्य निधि यानी जीपीएफ़ खाते से फ़र्जी नामों से बड़ी धनराशि निकाली गई है और उनके लिए विभिन्न बैंकों में फ़र्जी खाते खोले गए जिनमें स्टेट बैंक से आए चैकों का भुगतान किया गया।
इनमें कई लोग तो अदालत के कर्मचारी न होकर सामान के सप्लायर, ठेकेदार या ट्रेवल एजेंट हैं, जिन्हें जीपीएफ़ फंड से भुगतान किया गया।
अभियुक्तों ने पुलिस को दिए बयान में कहा की दरअसल यह धनराशि ज़िला अदालत के वरिष्ठ अधिकारियों ने बड़े-बड़े जजों को मंहगे टेलीविज़न, मोबाइल फोन या और क़ीमती उपहार देने अथवा टैक्सी बिलों के भुगतान के लिए निकलवाई।
प्राप्त जानकारी के अनुसार ज़िला कोर्ट के एक नाज़िर आशुतोष अस्थाना ने अपने बयान में 36 जजों के नाम गिनाए हैं जिन्होंने इस धन का फायदा उठाया। आशुतोष अस्थाना का दावा है कि इन सामानों की रसीदें और बिल उनके पास है।
सामान्य प्रक्रिया में तो पुलिस और जाँच अधिकारियों को अभियुक्त जजों संपर्क कर इस बारे में पूछताछ करनी चाहिए थी कि
अभियुक्तों के बयान सही हैं या नहीं लेकिन चूँकि यह जजों का मामला है इसलिए पुलिस अधिकारियों की उनसे पूछताछ करने की हिम्मत नहीं हुई।
ग़ाज़ियाबाद के पुलिस अधीक्षक दीपक रतन ने कहा कि चूँकि जजों को क़ानूनी संरक्षण प्राप्त है इसलिए इस मामले में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों की इजाज़त मांगी गई है।
हालाँकि कुछ पुलिस अधिकारियों ने कहा है कि इस मामले में स्थानीय पुलिस ने जो कार्रवाई की है वह समुचित नहीं है और क़ानूनी जाँच-पड़ताल करने में कोई बाधा नहीं है।
इन पुलिस अधिकारियों का कहना है कि जजों को सिर्फ़ऐसेदीवानी और आपराधिक मामलों में क़ानूनी संरक्षण हासिल है जब उनके ड्यूटी पर रहते हुए या कोई क़ानूनी कर्तव्य को अंजाम देते हुए होते हैं।
पुलिस अधिकारियों के अनुसार अगर कोई जज रिश्वत लेता है या ग़ैरक़ानूनी रूप से तोहफ़ा स्वीकार करता है तो यह उनकी कोई सरकारी ड्यूटी नहीं है और ऐसे मामलों में क़ानून पुलिस को जाँच-पड़ताल से नहीं रोकता है, क़ानून सिर्फ़ मुक़दमा चलाने से रोकता है।
हालाँकि कुछ अन्य पुलिस अधिकारियों का कहना है कि इस बारे में क़ानून पूरी तरह स्पष्ट नहीं है।
ऐसी ख़बरें मिली हैं कि सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने पुलिस से ऐसे सवालों की सूची माँगी है जो वह इस मामले में अभियुक्त बनाए गए जजों से पूछना चाहती है। ग़ाज़ियाबाद पुलिस उन सवालों की सूची तैयार कर रही है।
इस बीच स्थानीय पुलिस अधिकारियों का कहना है कि यह ऐसा मामला है जिसकी स्वतंत्र जाँच केंद्रीय जाँच ब्यूरो यानी सीबीआई ही कर सकती है क्योंकि ये एजेंसी स्वतंत्र रूप से काम करती है और वही इसमें दूध का दूध और पानी का पानी सामने ला सकती है।
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